अपनी पहचान मिटने को कहा जाता है.
बस्तिया छोड़ के जाने को कहा जाता है
पत्तिया रोज़ गिरा जाती है जहरीली हवा
और हमें पेड़ लगाने को कहा जाता है
कोई मौसम हो दुःख सुख में गुजरा कौन करता है |
परिंदों की तरह सबकुछ गवारा कौन करता है |
घरो की राख फिर देखेंगे पहले ये देखना है,
घरों को फूंक देने का इशारा कौन करता |
जिसे दुनिया कहा जाता है कोठे की तवाइफ़ है |
इशारा किसको करती है, नजारा कौन करता है |
><<<<<<<<>>>>>>>>><<<<<<<<<<<>>>>>>>>>>>>>>>>
जिहालातो के अंधेरे मिटा के लौट आया |
मै आज सारी किताबे जलाके लौट आया |
वो अब भी बैठी सिसककर रो रही होगी |
मै अपना हाथ हवा में हिलाकर लौट आया |
ख़बर मिली है की सोना निकल रहा है वहा
मै जिस जमीं पे ठोकर लगाके आया |<<<<<<<<<<<>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
मैं चाहता था ख़ुद से मुलाक़ात हो मगर
आईने मेरे क़द के बराबर नही मिले ……..’
‘मुकाबिल आइना है और तेरी गुलकारियां जैसे…….
सिपाही कर रहा हो ज़ंग की तय्यारियां जैसे……… ‘
‘मैंने मुल्कों की तरह लोगों के दिल जीते हैं ….
ये हुकूमत किसी तलवार की मोहताज नही…
लोग होंठों पे सजाये हुए फिरते है मुझे
मेरी शोहरत किसी अखबार की मोहताज नही……’
‘जितना देख आये हैं अच्छा है यही काफ़ी है ……
अब कहाँ जायें के दुनिया है यही काफ़ी है..’!!
<<<<<<<<<<<>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
बस्तिया छोड़ के जाने को कहा जाता है
पत्तिया रोज़ गिरा जाती है जहरीली हवा
और हमें पेड़ लगाने को कहा जाता है
कोई मौसम हो दुःख सुख में गुजरा कौन करता है |
परिंदों की तरह सबकुछ गवारा कौन करता है |
घरो की राख फिर देखेंगे पहले ये देखना है,
घरों को फूंक देने का इशारा कौन करता |
जिसे दुनिया कहा जाता है कोठे की तवाइफ़ है |
इशारा किसको करती है, नजारा कौन करता है |
><<<<<<<<>>>>>>>>><<<<<<<<<<<>>>>>>>>>>>>>>>>
जिहालातो के अंधेरे मिटा के लौट आया |
मै आज सारी किताबे जलाके लौट आया |
वो अब भी बैठी सिसककर रो रही होगी |
मै अपना हाथ हवा में हिलाकर लौट आया |
ख़बर मिली है की सोना निकल रहा है वहा
मै जिस जमीं पे ठोकर लगाके आया |<<<<<<<<<<<>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
मैं चाहता था ख़ुद से मुलाक़ात हो मगर
आईने मेरे क़द के बराबर नही मिले ……..’
‘मुकाबिल आइना है और तेरी गुलकारियां जैसे…….
सिपाही कर रहा हो ज़ंग की तय्यारियां जैसे……… ‘
‘मैंने मुल्कों की तरह लोगों के दिल जीते हैं ….
ये हुकूमत किसी तलवार की मोहताज नही…
लोग होंठों पे सजाये हुए फिरते है मुझे
मेरी शोहरत किसी अखबार की मोहताज नही……’
‘जितना देख आये हैं अच्छा है यही काफ़ी है ……
अब कहाँ जायें के दुनिया है यही काफ़ी है..’!!
<<<<<<<<<<<>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें