हम भी असीम कि तरह कितने दीवाने निकले
उस के दर पर इसी उम्मीद पे बैठा हूँ फ़क़त
काश खैरात ही करने के बहाने निकले
मेरे दुःख दर्द को सुनने का नहीं वक़्त इन्हें
कितने मसरूफ सभी यार पुराने निकले
सारे कन्धों पे है ज़ंजीर-ए-गुलामी का वज़न
कौन गैरत का जनाज़े को उठाने निकले
ख्वाब में गम है खुली आँख से ये कौम मेरी
है यही वक़्त कोई इसको जगाने निकले
पर्दा-ए-गैब में बैठा है जो हादी कृष्णपाल
उसको आवाज़ दो अब दीं बचाने निकले
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