किताबों में मेरे फ़साने ढूँढ़ते है,
नादान हैं गुज़रे ज़माने ढूँढ़ते है.
जब वोह थे....!! तलाश-इ-ज़िन्दगी भी थी,
अब तो मौत के ठिकाने ढूँढ़ते है.
कल खुद ही अपनी महफ़िल से निकाला था,
आज हुए से दीवाने ढूँढ़ते है.
मुसाफिर बे-खबर हैं तेरी आँखों से,
तेरे शहर में मैखाने ढूँढ़ते है.
तुझे क्या पता ए सितम ढाने वाले,
हम तो रोने के बहाने ढूँढ़ते है.
उनकी आँखों को यूँ देखो न "कृष्णपाल ",
नए तीर हैं... नए निशाने ढूँढ़ते है.
आपके जवाब के मुन्तजिर, कृष्णपाल
ज़रूरी तो नही, के बताये लबों से दास्तान अपनी,
ज़बान एक और भी होती है इज़हार की.
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waw kya baat hai shubhanallah.........!
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